बंजारे बंजारों में...
ख़ुशबू नहीं प्यार की महकी जिनके सोच-विचारों में।
नागफनी की चुभन मिली उनके दैनिक व्यवहारों में।
तू पतझर के पीले पत्तों पर पग धरते डरता है,
लोग सफलता खोज चुके हैं लाशों के अंबारों में।
महलों के रहने वाले कुछ दूरी रखकर मिलते हैं,
पल-भर में घुल-मिल जाते हैं बंजारे बंजारों में।
औरत ही माँ, बहन, आत्मजा, पत्नी और प्रेमिका है,
बदली नज़रों से पड़ता है, कितना फ़र्क नज़ारों में।
अगर उजाला दे न सका तू ‘उदय’ अंधेरी बस्ती को,
क्या होगा यदि लिख भी गया कल नाम तेरा फ़नकारों में।
नाम पर मज़हब के ठेकेदारियाँ...
नाम पर मज़हब के ठेकेदारियाँ इतनी कि बस।
सेक्युलर खेमे में हैं सरदारियाँ इतनी कि बस।
पीठ के पीछे छुपाए हैं कटोरा भीख का,
और होठों से बयाँ खुद्दारियाँ इतनी कि बस।
पनघटों की रौनकें इतिहास में दाख़िल हुई,
ख़ूबसूरत आज भी पनिहारियाँ इतनी कि बस।
जान जनता और जनार्दन दोनों की मुश्किल में है,
इन सियासतदानों की अय्यारियाँ इतनी कि बस।
तन रंगा फिर मन रंगा फिर आत्मा तक रंग गई,
आँखों-आँखों में चली पिचकारियाँ इतनी कि बस।
ऊपर-ऊपर प्यार की बातें दिखावे के लिए,
अन्दर-अन्दर युद्ध की तैयारियाँ इतनी कि बस।
दो गुलाबी होठों के बाहर हँसी निकली ही थी,
खिल गईं चारों तरफ़ फुलवारियाँ इतनी कि बस।
...ये हिन्दुस्तान सबका है
न मेरा है न तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है।
नहीं समझी गई ये बात तो नुकसान सबका है।
हज़ारों रास्ते खोजे गए उस तक पहुँचने के,
मगर पहुँचे हुए ये कह गए भगवान सबका है।
जो इसमें मिल गईं नदियाँ वे दिखलाई नहीं देतीं,
महासागर बनाने में मगर एहसान सबका है।
अनेकों रंग, ख़ुशबू, नस्ल के फल-फूल पौधे हैं,
मगर उपवन की इज्जत-आबरू ईमान सबका है।
हक़ीक़त आदमी की और झटका एक धरती का,
जो लावारिस पड़ी है धूल में सामान सबका है।
ज़रा से प्यार को खुशियों की हर झोली तरसती है,
मुकद्दर अपना-अपना है, मगर अरमान सबका है।
उदय झूठी कहानी है सभी राजा और रानी की,
जिसे हम वक़्त कहते हैं वही सुल्तान सबका है।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए...
चाहे जो हो धर्म तुम्हारा चाहे जो वादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
जिसके अन्न और पानी का इस काया पर ऋण है
जिस समीर का अतिथि बना यह आवारा जीवन है
जिसकी माटी में खेले, तन दर्पण-सा झलका है
उसी देश के लिए तुम्हारा रक्त नहीं छलका है
तवारीख के न्यायालय में तो तुम प्रतिवादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
जिसके पर्वत खेत घाटियों में अक्षय क्षमता है
जिसकी नदियों की भी हम पर माँ जैसी ममता है
जिसकी गोद भरी रहती है, माटी सदा सुहागिन
ऐसी स्वर्ग सरीखी धरती पीड़ित या हतभागिन?
तो चाहे तुम रेशम धारो या पहने खादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
जिसके लहराते खेतों की मनहर हरियाली से
रंग-बिरंगे फूल सुसज्जित डाली-डाली से
इस भौतिक दुनिया का भार ह्रदय से उतरा है
उसी धरा को अगर किसी मनहूस नज़र से खतरा है
तो दौलत ने चाहे तुमको हर सुविधा लादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
अगर देश मर गया तो बोलो जीवित कौन रहेगा?
और रहा भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा?
माँग रही है क़र्ज़ जवानी सौ-सौ सर कट जाएँ
पर दुश्मन के हाथ न माँ के आँचल तक आ पाएँ
जीवन का है अर्थ तभी तक जब तक आज़ादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
चाहे हो दक्षिण के प्रहरी या हिमगिरी वासी हो
चाहे राजा रंगमहल के हो या सन्यासी हो
चाहे शीश तुम्हारा झुकता हो मस्जिद के आगे
चाहे मंदिर गुरूद्वारे में भक्ति तुम्हारी जागे
भले विचारों में मितना ही अंतर बुनियादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
यह वह भारतवर्ष नहीं है!
कभी कभी सोचा करता हूँ, मैं ये मन ही मन में,
क्यों फूलों की कमी हो गयी आखिर नंदन वन में?
हरे भरे धन धान्य पूर्ण खेतों की ये धरती थी,
सुंदरता में इन्द्रसभा इसका पानी भरती थी
शश्य श्यामला धरती इसको देती थी सौगातें,
सोने जैसे दिन थे इसके चांदी जैसी रातें
सुप्रभात लेकर आते थे सत्यम शिवम सुन्दरम,
अनायास ही हो जाते थे, जन जन को ह्रदयंगम
यहाँ वंदना आडम्बर का बोझ नहीं ढोती थी,
उच्चारण से नहीं, आचरण से पूजा होती थी
बचपन में ये वाक्य लगा करता था कितना प्यारा,
सोने की चिड़िया कहलाने वाला देश हमारा,
इसी देश के बारे में कहती आई थीं सदियाँ,
बही बही फिरती थीं इसमें दूध दही की नदियाँ
पर अब कहीं देखने को भी वह उत्कर्ष नहीं हैं,
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है।
फूल आज भी खिलते हैं पर उनमें गंध नहीं है
जाने क्यों उपवन में उपवन सा आनंद नहीं है
कहाँ गयीं वे शश्य श्यामला धरती की सौगातें
कौन चुराता है सोने के दिन चांदी की रातें !
किसने जन जन के जीवन को यों काला कर डाला,
कौन हड़प जाता है सबके हिस्से का उजियाला
अब तो मुस्कानों के चेहरे पर भी हर्ष नहीं है
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है।
और अगर ये वही देश है, तो कितना है अचरज
चूस रहे हैं मानव कि हड्डी दधिचि के वंशज
जिनके पूर्वजनो ने जीवन सदा धरोहर माना
औरों की खातिर मरना था जीने का पैमाना.
उनकी संतानों ने पाया कैसा रूप घिनोना,
लाशों की मजबूरी से भी कमा रहे हैं सोना,
महावीर के संदेशों का ये निष्कर्ष निकला,
गौतम के शब्दों के अर्थों का अनर्थ कर डाला,
घर घर उनके चित्र टंगे हैं, पर आदर्श नहीं हैं
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है।
खींच रहा है द्रुपद सुता का अब भी चीर दुशासन
और पूर्ववत देख रहा है अंधा राज सिंहासन
पर तब से अब की स्थिति में एक बड़ा अंतर है
इस युग के कान्हा को दुर्योधन के धन का डर है
भीष्म, विदुर की तरह शक्ति वो चीर बढ़ाने वाली,
इस युग में करती है, दुर्योधन की नमक हलाली
इसी तरह खींची जायेगी, द्रोपदियों की साड़ी
यदि दुर्योधन धनी रहे और निर्धन कृष्ण मुरारी
एक दार्शनिक का है ये कवि का निष्कर्ष नहीं है
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है।
उस पर ये अजदहे प्रभु का ध्यान किया करते हैं
सच पूछो तो ये उसका अपमान किया करते हैं
इश्वर कभी नहीं चाहेगा यह उसकी संताने
महलों की जूठन से खाएं बीन बीन कर दाने
और अगर चाहे तो ऐसा इश्वर मान्य नहीं है
खास खेत के बेटों के घर में धन धान्य नहीं है
भ्रष्टाचारी, चोर, रिश्वती, बेईमान, जुआरी
अपने पुण्यों के प्रताप से महलों के अधिकारी
सोच रहे हैं सत्य अहिंसा मेहनत के अनुयायी
जीवन और मरण दोनों में कौन अधिक सुखदायी
बुनकर जीवन भर में अपना कफ़न नहीं बुन पाते
जैसे नंगे पैदा होते, वैसे ही मर जाते
रग रग दुखती है समाज की कब तक कहें कहानी,
लगता है अब नहीं रहा है किसी आँख में पानी,
किसी देश में जब ऎसी बेशर्मी घर कर जाए,
जब उसके जन जन की आँखों का पानी मर जाए
पहले तो वो देश अधिक दिन जीवित नहीं रहेगा
और रहे भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा
इसीलिये कहता हूँ साथी अपने होश संभालो,
बुद्धजीवियो, कवियों कोई ऐसी युक्ति निकालो
हरा-भरा दिखने लग जाए, फिर से यह नंदनवन
वनवासी श्रम को मिल जाए फिर से राज सिंहासन
शश्य श्यामला धरती उगले फिर से वो सौगातें,
सोने जैसे दिन हो जाएँ चांदी जैसी रातें
सुप्रभात लेकर फिर आयें सत्यम शिवम सुन्दरम
अनायास ही हो जाएँ फिर जन जन के ह्रदयंगम
जिससे कोई ये न कहे हममें उत्कर्ष नहीं है
जिससे कोई ये न कहे यह भारतवर्ष नहीं है।
ख़ुशबू नहीं प्यार की महकी जिनके सोच-विचारों में।
नागफनी की चुभन मिली उनके दैनिक व्यवहारों में।
तू पतझर के पीले पत्तों पर पग धरते डरता है,
लोग सफलता खोज चुके हैं लाशों के अंबारों में।
महलों के रहने वाले कुछ दूरी रखकर मिलते हैं,
पल-भर में घुल-मिल जाते हैं बंजारे बंजारों में।
औरत ही माँ, बहन, आत्मजा, पत्नी और प्रेमिका है,
बदली नज़रों से पड़ता है, कितना फ़र्क नज़ारों में।
अगर उजाला दे न सका तू ‘उदय’ अंधेरी बस्ती को,
क्या होगा यदि लिख भी गया कल नाम तेरा फ़नकारों में।
नाम पर मज़हब के ठेकेदारियाँ...
नाम पर मज़हब के ठेकेदारियाँ इतनी कि बस।
सेक्युलर खेमे में हैं सरदारियाँ इतनी कि बस।
पीठ के पीछे छुपाए हैं कटोरा भीख का,
और होठों से बयाँ खुद्दारियाँ इतनी कि बस।
पनघटों की रौनकें इतिहास में दाख़िल हुई,
ख़ूबसूरत आज भी पनिहारियाँ इतनी कि बस।
जान जनता और जनार्दन दोनों की मुश्किल में है,
इन सियासतदानों की अय्यारियाँ इतनी कि बस।
तन रंगा फिर मन रंगा फिर आत्मा तक रंग गई,
आँखों-आँखों में चली पिचकारियाँ इतनी कि बस।
ऊपर-ऊपर प्यार की बातें दिखावे के लिए,
अन्दर-अन्दर युद्ध की तैयारियाँ इतनी कि बस।
दो गुलाबी होठों के बाहर हँसी निकली ही थी,
खिल गईं चारों तरफ़ फुलवारियाँ इतनी कि बस।
...ये हिन्दुस्तान सबका है
न मेरा है न तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है।
नहीं समझी गई ये बात तो नुकसान सबका है।
हज़ारों रास्ते खोजे गए उस तक पहुँचने के,
मगर पहुँचे हुए ये कह गए भगवान सबका है।
जो इसमें मिल गईं नदियाँ वे दिखलाई नहीं देतीं,
महासागर बनाने में मगर एहसान सबका है।
अनेकों रंग, ख़ुशबू, नस्ल के फल-फूल पौधे हैं,
मगर उपवन की इज्जत-आबरू ईमान सबका है।
हक़ीक़त आदमी की और झटका एक धरती का,
जो लावारिस पड़ी है धूल में सामान सबका है।
ज़रा से प्यार को खुशियों की हर झोली तरसती है,
मुकद्दर अपना-अपना है, मगर अरमान सबका है।
उदय झूठी कहानी है सभी राजा और रानी की,
जिसे हम वक़्त कहते हैं वही सुल्तान सबका है।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए...
चाहे जो हो धर्म तुम्हारा चाहे जो वादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
जिसके अन्न और पानी का इस काया पर ऋण है
जिस समीर का अतिथि बना यह आवारा जीवन है
जिसकी माटी में खेले, तन दर्पण-सा झलका है
उसी देश के लिए तुम्हारा रक्त नहीं छलका है
तवारीख के न्यायालय में तो तुम प्रतिवादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
जिसके पर्वत खेत घाटियों में अक्षय क्षमता है
जिसकी नदियों की भी हम पर माँ जैसी ममता है
जिसकी गोद भरी रहती है, माटी सदा सुहागिन
ऐसी स्वर्ग सरीखी धरती पीड़ित या हतभागिन?
तो चाहे तुम रेशम धारो या पहने खादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
जिसके लहराते खेतों की मनहर हरियाली से
रंग-बिरंगे फूल सुसज्जित डाली-डाली से
इस भौतिक दुनिया का भार ह्रदय से उतरा है
उसी धरा को अगर किसी मनहूस नज़र से खतरा है
तो दौलत ने चाहे तुमको हर सुविधा लादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
अगर देश मर गया तो बोलो जीवित कौन रहेगा?
और रहा भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा?
माँग रही है क़र्ज़ जवानी सौ-सौ सर कट जाएँ
पर दुश्मन के हाथ न माँ के आँचल तक आ पाएँ
जीवन का है अर्थ तभी तक जब तक आज़ादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
चाहे हो दक्षिण के प्रहरी या हिमगिरी वासी हो
चाहे राजा रंगमहल के हो या सन्यासी हो
चाहे शीश तुम्हारा झुकता हो मस्जिद के आगे
चाहे मंदिर गुरूद्वारे में भक्ति तुम्हारी जागे
भले विचारों में मितना ही अंतर बुनियादी हो।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो।
यह वह भारतवर्ष नहीं है!
कभी कभी सोचा करता हूँ, मैं ये मन ही मन में,
क्यों फूलों की कमी हो गयी आखिर नंदन वन में?
हरे भरे धन धान्य पूर्ण खेतों की ये धरती थी,
सुंदरता में इन्द्रसभा इसका पानी भरती थी
शश्य श्यामला धरती इसको देती थी सौगातें,
सोने जैसे दिन थे इसके चांदी जैसी रातें
सुप्रभात लेकर आते थे सत्यम शिवम सुन्दरम,
अनायास ही हो जाते थे, जन जन को ह्रदयंगम
यहाँ वंदना आडम्बर का बोझ नहीं ढोती थी,
उच्चारण से नहीं, आचरण से पूजा होती थी
बचपन में ये वाक्य लगा करता था कितना प्यारा,
सोने की चिड़िया कहलाने वाला देश हमारा,
इसी देश के बारे में कहती आई थीं सदियाँ,
बही बही फिरती थीं इसमें दूध दही की नदियाँ
पर अब कहीं देखने को भी वह उत्कर्ष नहीं हैं,
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है।
फूल आज भी खिलते हैं पर उनमें गंध नहीं है
जाने क्यों उपवन में उपवन सा आनंद नहीं है
कहाँ गयीं वे शश्य श्यामला धरती की सौगातें
कौन चुराता है सोने के दिन चांदी की रातें !
किसने जन जन के जीवन को यों काला कर डाला,
कौन हड़प जाता है सबके हिस्से का उजियाला
अब तो मुस्कानों के चेहरे पर भी हर्ष नहीं है
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है।
और अगर ये वही देश है, तो कितना है अचरज
चूस रहे हैं मानव कि हड्डी दधिचि के वंशज
जिनके पूर्वजनो ने जीवन सदा धरोहर माना
औरों की खातिर मरना था जीने का पैमाना.
उनकी संतानों ने पाया कैसा रूप घिनोना,
लाशों की मजबूरी से भी कमा रहे हैं सोना,
महावीर के संदेशों का ये निष्कर्ष निकला,
गौतम के शब्दों के अर्थों का अनर्थ कर डाला,
घर घर उनके चित्र टंगे हैं, पर आदर्श नहीं हैं
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है।
खींच रहा है द्रुपद सुता का अब भी चीर दुशासन
और पूर्ववत देख रहा है अंधा राज सिंहासन
पर तब से अब की स्थिति में एक बड़ा अंतर है
इस युग के कान्हा को दुर्योधन के धन का डर है
भीष्म, विदुर की तरह शक्ति वो चीर बढ़ाने वाली,
इस युग में करती है, दुर्योधन की नमक हलाली
इसी तरह खींची जायेगी, द्रोपदियों की साड़ी
यदि दुर्योधन धनी रहे और निर्धन कृष्ण मुरारी
एक दार्शनिक का है ये कवि का निष्कर्ष नहीं है
तब मुझको लगता है यह वह भारतवर्ष नहीं है।
उस पर ये अजदहे प्रभु का ध्यान किया करते हैं
सच पूछो तो ये उसका अपमान किया करते हैं
इश्वर कभी नहीं चाहेगा यह उसकी संताने
महलों की जूठन से खाएं बीन बीन कर दाने
और अगर चाहे तो ऐसा इश्वर मान्य नहीं है
खास खेत के बेटों के घर में धन धान्य नहीं है
भ्रष्टाचारी, चोर, रिश्वती, बेईमान, जुआरी
अपने पुण्यों के प्रताप से महलों के अधिकारी
सोच रहे हैं सत्य अहिंसा मेहनत के अनुयायी
जीवन और मरण दोनों में कौन अधिक सुखदायी
बुनकर जीवन भर में अपना कफ़न नहीं बुन पाते
जैसे नंगे पैदा होते, वैसे ही मर जाते
रग रग दुखती है समाज की कब तक कहें कहानी,
लगता है अब नहीं रहा है किसी आँख में पानी,
किसी देश में जब ऎसी बेशर्मी घर कर जाए,
जब उसके जन जन की आँखों का पानी मर जाए
पहले तो वो देश अधिक दिन जीवित नहीं रहेगा
और रहे भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा
इसीलिये कहता हूँ साथी अपने होश संभालो,
बुद्धजीवियो, कवियों कोई ऐसी युक्ति निकालो
हरा-भरा दिखने लग जाए, फिर से यह नंदनवन
वनवासी श्रम को मिल जाए फिर से राज सिंहासन
शश्य श्यामला धरती उगले फिर से वो सौगातें,
सोने जैसे दिन हो जाएँ चांदी जैसी रातें
सुप्रभात लेकर फिर आयें सत्यम शिवम सुन्दरम
अनायास ही हो जाएँ फिर जन जन के ह्रदयंगम
जिससे कोई ये न कहे हममें उत्कर्ष नहीं है
जिससे कोई ये न कहे यह भारतवर्ष नहीं है।